विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित 104,105 वीं ( आत्मा संबंधी चार विधियां) विधियां क्या है?

विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 104;-
14 FACTS;-
1-तीसरी विधि..भगवान शिव कहते है:-
‘'हे शक्ति, प्रत्येक आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।’'
2-जो कुछ भी हम देखते है सीमित है, जो कुछ भी हम अनुभव करते है सीमित है। सभी आभास सीमित है। लेकिन यदि तुम जाग जाओ तो हर सीमित चीज असीम में विलीन हो रही है। आकाश की ओर देखो। तुम केवल उसका सीमित भाग देख पाओगे। इसलिए नहीं कि आकाश सीमित है, बल्कि इसलिए कि तुम्हारी आंखें सीमित है। तुम्हारा अवधान सीमित है। लेकिन यदि तुम पहचान सको कि यह सीमा अवधान के कारण है, आंखों के कारण है, आकाश के सीमित होने के कारण नहीं है तो फिर तुम देखोगें कि सीमाएं असीम में विलीन हो रही है।
3-जो कुछ भी हम देखते है वह हमारी दृष्टि के कारण ही सीमित हो जाता है। वरना तो अस्तित्व असीम है। वरना तो सब चीजें एक दूसरे में विलीन हो रही है। हर चीज अपनी सीमाएं खो रही है। हर क्षण लहरें महासागर में विलीन हो रही है। और न किसी का कोई अंत है, न आदि।सीमा हमारे द्वारा आरोपित की गई है।यह हमारे कारण है, क्योंकि हम अनंत
को देख नहीं पाते, इसलिए उसको विभाजित कर देते है।
4-ऐसा हमने हर चीज के साथ किया है। तुम अपने घर के आस-पास बाड़ लगा लेते हो और कहते हो कि ‘यह जमीन मेरी है, और दूसरी ओर किसी और की जमीन है।’ लेकिन गहरे में तुम्हारी और तुम्हारे पड़ोसी की जमीन एक ही है। वह बाड़ केवल तुम्हारे ही कारण है। जमीन बंटी हुई नहीं है। पड़ोसी और तुम बंटे हुए हो अपने-अपने मन के कारण।देश बंटे हुए है तुम्हारे
मन के कारण। कहीं भारत समाप्त होता है और पाकिस्तान शुरू होता है। लेकिन जहां अब पाकिस्तान है कुछ वर्ष पहले वहां भारत था। उस समय भारत पाकिस्तान की ..आज की सीमाओं तक फैला हुआ था। लेकिन अब पाकिस्तान बंट गया, सीमा आ गई लेकिन जमीन वही है।
5-उदाहरण के लिए,एक कहानी है जो तब घटी जब भारत और पाकिस्तान में बंटवारा हुआ। भारत और पाकिस्तान की सीमा पर ही एक पागलखाना था। राजनीतिज्ञों को कोई बहुत चिंता नहीं थी कि पागलखाना कहां जाए। भारत में या पाकिस्तान में। लेकिन सुपरिनटैंडैंट को चिंता थी। तो उसने पूछा कि पागलखाना कहां रहेगा.. भारत में या पाकिस्तान में। दिल्ली से किसी ने उसे सूचना भेजी कि वह वहां रहने वाले पागलों से ही पूछ ले और मतदान ले-ले कि वे कहां जाना चाहते है।
6-सुपरिन्टेंड़ेंट ने उनको समझाने की कोशिश की..सब पागलों को इकट्ठा किया और उन्हें कहां, ‘अब यह तुम्हारे ऊपर है, यदि तुम पाकिस्तान में जाना चाहते हो तो पाकिस्तान में जा
सकते हो।’लेकिन पागलों ने कहां, ‘हम यही रहना चाहते है। हम कहीं भी नहीं जाना चाहते।’ उसने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की। उसने कहां, ‘तुम यहीं रहोगे। उसकी चिंता मत करो। तुम यहीं रहोगे लेकिन तुम जाना कहां चाहते हो।’ वे पागल बोले, ‘लोग कहते है कि हम पागल है, पर तुम तो और भी पागल लगते हो। तुम कहते हो कि तुम भी यहीं रहोगे और हम भी यहीं रहेंगे। कहीं जाने की चिता नहीं है।’
7-सुपरिन्टेंड़ेंट तो मुश्किल में पड़ गया कि इन्हें पूरी बात किस तरह समझाई जाए। एक ही उपाय था। उसने एक दीवार खड़ी कर दी और पागल खाने को दो बराबर हिस्सों में बांट दिया। एक हिस्सा पाकिस्तान हो गया ..एक हिस्सा भारत बन गया। और कहते है कि कई बार पाकिस्तान वाले पागलखाने के कुछ पागल दीवार पर चढ़ आते है और भारत वाले पागल भी दीवार कूद जाते है और वे अभी भी हैरान है कि क्या हो गया है। हम है उसी जगह पर और तुम पाकिस्तान चले गए हो हम भारत चले गए है और गया कोई कहीं भी नहीं।वे पागल
समझ ही नहीं सकते, वे कभी भी नहीं समझ पाएंगे, क्योंकि ...।
8-हम बांटते चले जाते है। जीवन अस्तित्व बंटा हुआ नहीं है। सभी सीमाएं मनुष्य की बनाई हुई है। वे उपयोगी है यदि तुम उसके पीछे पागल न हो जाओ और यदि तुम्हें पता हो कि वे बस कामचलाऊ है, मनुष्य की बनाई हुई है। मात्र उपयोगिता के लिए है; असली नहीं है, यथार्थ नहीं है, बस मान्यता मात्र है, कि वे उपयोगी तो है, लेकिन उसमें कोई सच्चाई नहीं है।
'‘हे शक्ति, प्रत्येक आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।'’तो तुम जब भी
कुछ सीमित देखो तो हमेशा याद रखो कि सीमा के पार वह विलीन हो रहा है, सीमा तिरोहित हो रही है। हमेशा पार और पार देखो।
9-इसे तुम एक ध्यान बना सकते हो। किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाओ और देखो, और जो भी तुम्हारी दृष्टि में आए, उसके पार जाओ, पार जाओ, कहीं भी रूको मत। बस यह खोजों कि यह वृक्ष कहां समाप्त हो रहा है। यह वृक्ष तुम्हारे बग़ीचे में यह छोटा सा वृक्ष पूरा अस्तित्व अपने में समाहित किए हुए है। हर क्षण यह अस्तित्व में विलीन हो रहा है।यदि कल सूर्य
न निकले तो यह वृक्ष मर जाएगा। क्योंकि इस वृक्ष का जीवन सूर्य के जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। उनके बीच दूरी बड़ी है।
10-सूर्य की किरणें पृथ्वी तक पहुंचने में समय लगता है। दस मिनट लगते है। दस मिनट बहुत लंबा समय है। क्योंकि प्रकाश बहुत तेज गति से चलता है। प्रकाश एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील चलता है। और सूर्य से इस वृक्ष तक प्रकाश पहुंचने में दस मिनट लगते है। दूरी बड़ी है, विशाल है। लेकिन यदि सूर्य न रहे तो वृक्ष तत्क्षण मर जायेगा। वे दोनों एक साथ है। वृक्ष हर क्षण सूर्य में विलीन हो रहा है। और सूर्य हर क्षण वृक्ष में विलीन हो रहा है। हर क्षण सूर्य वृक्ष में प्रवेश कर रहा है...उसे जीवंत कर रहा है।
11-दूसरी बात, जो अभी विज्ञान को ज्ञान नहीं है, लेकिन धर्म कहता है कि एक और घटना घट रही है। क्योंकि प्रति संवेदन के बिना जीवन में कुछ भी नहीं रह सकता। जीवन में सदा एक प्रति संवेदन होता है। और ऊर्जा बराबर हो जाती है। वृक्ष भी सूर्य को जीवन दे रहा होगा। वे एक ही है। फिर वृक्ष समाप्त हो जाता है सीमा समाप्त हो जाती है।जहां भी तुम देखो,
उसके पार देखो, और कहीं भी रूको मत। देखते जाओ। देखते जाओ, जब तक कि तुम्हारा मन न खो जाए। जब तक तुम अपने सारे सीमित आकार न खो बैठो। अचानक तुम प्रकाशमान हो जाओगे।
12-पूरा अस्तित्व एक है, वह एकता ही लक्ष्य है। और अचानक मन आकार से सीमा से, परिधि से थक जाता है। और जैसे-जैसे तुम पार जाने के प्रयत्न में लगे रहते हो, पार और पार जाते चले जाते हो। मन छूट जाता है। अचानक मन गिर जाता है। और तुम अस्तित्व को विराट अद्वैत की तरह देखते हो। सब कुछ एक दूसरे में समाहित हो रहा है। सब कुछ एक दूसरे में परिवर्तित हो रहा है।
‘'हे शक्ति, प्रत्येक आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।’'
13-तुम इसे एक ध्यान बना सकते हो। एक घंटे के लिए बैठ जाओ और इसे करके देखो। कहीं कोई सीमा मत बनाओ। जो भी सीमा हो उसके पार खोजने का प्रयास करो और चले जाओ। जल्दी ही मन थक जाता है क्योंकि मन असीम के साथ नहीं चल सकता। मन केवल सीमित से ही जुड़ सकता है। असीम के साथ मन नहीं जुड़ सकता; मन ऊब जाता है। थक जाता है। कहता है, ‘बहुत हुआ,अब बस करो।’ लेकिन रूको मत, चलते जाओ।
14-एक क्षण आएगा जब मन पीछे छूट जाता है।और केवल चेतना ही बचती है। उस क्षण में तुम्हें अखंडता का अद्वैत का ज्ञान होगा। यही लक्ष्य है। यह चेतना का सर्वोच्च शिखर है। और मनुष्य के मन के लिए यह परम आनंद है, गहनत्म समाधि है।‘'हे शक्ति, प्रत्येक आभास सीमित है, सर्वशक्तिमान में विलीन हो रहा है।’' ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान विधि 105;-
15 FACTS;-
1-चौथी विधि..भगवान शिव कहते है:-
‘'सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।’'
2-'सत्य में रूप अविभक्त है।’वे विभक्ति दिखाई पड़ते है, लेकिन हर रूप दूसरे रूपों के साथ संबंधित है। वह दूसरों के साथ अस्तित्व में है ...बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि वह दूसरे रूपों के साथ सह-अस्तित्व में है। हमारी वास्तविकता एक सह सही अस्तित्व है। वास्तव में यह एक पारस्परिक वास्तविकता है। पारस्परिक आत्मीयता है। उदाहरण के लिए, जरा सोचो कि तुम इस पृथ्वी पर अकेले हो।तो तुम क्या होओगे? पूरी मनुष्यता समाप्त हो गई हो, तीसरे विश्वयुद्ध के बाद तुम्हीं अकेले बचे हो ...संसार में अकेले, इस विशाल पृथ्वी पर अकेले। तुम कौन होओगे?
3-पहली बात तो यह है कि अपने अकेले होने की कल्पना करना ही असंभव है।तुम बार-बार कोशिश करोगे और पाओगे कि कोई साथ ही खड़ा है ...तुम्हारी पत्नी, तुम्हारे बच्चे, तुम्हारे मित्र...क्योंकि तुम कल्पना में भी अकेले नहीं रह सकते। तुम दूसरों के साथ ही हो। वे तुम्हें अस्तित्व देते है। वे तुम्हें सहयोग देते है। तुम उन्हें सहयोग देते हो और वे तुम्हें सहयोग देते है।
4-तुम कौन होगे। तुम अच्छे आदमी होगे या बुरे आदमी ... कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि अच्छाई और बुराई सापेक्ष होती है। तुम सुंदर होओगे कि कुरूप ...कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तुम पुरूष होगे या स्त्री ...बुद्धिमान होगे या मूढ़... कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि तुम जो भी हो, दूसरे के संबंध में हो।
5-धीरे-धीरे तुम पाओगे कि सब रूप समाप्त हो गए। और उन रूपों के समाप्त होने के साथ तुम्हारे भीतर के भी सब रूप समाप्त हो गए है। न तुम मूर्ख हो न बुद्धिमान, न अच्छे न बुरे, न कुरूप न सुंदर, न पुरूष न स्त्री। फिर तुम क्या होगे.. यदि तुम सब रूपों को हटाते चलो तो जल्दी ही तुम पाओगे कि कुछ भी नहीं बचा। हम रूपों को अलग-अलग देखते है। लेकिन वे अलग है नहीं, हर रूप दूसरों के साथ जुड़ा है। रूप एक श्रंखला में होते है।
यह सूत्र कहता है: ‘सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है।’
6-तुम्हारा रूप और संपूर्ण अस्तित्व का रूप भी अविभक्त है। तुम उसके साथ एक हो। तुम उसके बिना नहीं हो सकते। और दूसरी बात भी सच है, लेकिन उसे समझना थोड़ा कठिन है.. जगत भी तुम्हारे बिना नहीं हो सकता।जैसे की तुम जगत के बिना नहीं हो सकते। तुम अलग-अलग रूपों में सदैव रहे हो और अलग-अलग रूपों में सदैव रहोगे। लेकिन तुम रहोगे ही। तुम इस जगत के एक अभिन्न अंग हो। तुम बाहरी नहीं हो, कोई अजनबी नहीं हो, कोई परदेशी नहीं हो। तुम एक अंतरंग, अभिन्न अंग हो। और जगत तुम्हें खो नहीं सकता। क्योंकि यदि वह तुम्हें खोता है तो स्वयं भी खो देगा। रूप विभक्त नहीं है। अविभक्त है। वे एक है। केवल आभास ही सीमाएं और परिधियां खड़ी करते है।
7-यदि तुम इस पर मनन करो। इसमें प्रवेश करो, तो यह एक अनुभूति बन सकती है।यह कोई सिद्धांत नहीं, कोई विचार नहीं, बल्कि एक अनुभूति है,'' हां, मैं जगत के साथ एक हूं और जगत मेरे साथ एक है।''यही जीसस यहूदियों से कह रहे थे।लेकिन वह नाराज हुए,क्योंकि
जीसस ने कहा, ‘मैं और स्वर्ग में मेरे पिता एक ही है।’ यहूदी नाराज हुए। जीसस क्या दावा कर रहे थे? क्या वह यह दावा कर रहे थे कि वह और परमात्मा एक ही है? यह तो ईश्वर विरोधी बात हो गई। उन्हें दंड मिलना चाहिए।
8-लेकिन जीसस तो मात्र एक विधि दे रहे थे। और कुछ भी नहीं। वह मात्र यह विधि दे रहे थे कि यह विभक्त नहीं है, कि तुम और पूर्ण एक ही हो–‘मैं और स्वर्ग में मेरे पिता एक ही है।’ लेकिन यह कोई दावा नहीं था, यह मात्र एक विधि थी।और जब जीसस ने कहा कि
‘मैं और मेरे पिता एक ही है, तो उनका यह अर्थ नहीं था कि तुम और पिता परमात्मा अलग-अलग हो।
9-जब उन्होंने कहा, ‘मैं तो हर ”मैं” हर चेतना,में आ गया हूँ । जहां भी ‘मैं’ है वह उस में है और परमात्मा एक है। लेकिन इसे गलत समझा गया। और यहूदी तथा ईसाइयों, दोनों ने ही इसे गलत समझा। ईसाइयों ने भी गलत समझा। क्योंकि वे कहते है कि जीसस परमात्मा के इकलौते बेटे है। परमात्मा के इकलौते बेटे ताकि कोई और यह दावा न कर सके कि वह भी परमात्मा का बेटा है।’
10-उदाहरण के लिए,एक पुस्तक का शीर्षक है, ”तीन क्राइस्ट।”यह एक सच्ची घटना है। कोई कहानी नहीं है। एक पागलख़ाने में तीन आदमी थे और तीनों ही यह दावा करते थे कि वे क्राइस्ट है। तो एक मनोविश्लेषक ने तीनों को अध्ययन किया। फिर उसके मन में एक विचार आया कि यह उन तीनों को आपस में मिलवाया जाए तो देखें क्या होता है। वे एक दूसरे को कैसे परिचय देंगे और क्या उनकी प्रतिक्रिया होगी। तो उसने उन तीनों को इकट्ठा किया और आपस में परिचय करने के लिए एक कमरे में छोड़ दिया।
11-पहला बोला, ”मैं इकलौता बेटा हूं, जीसस क्राइस्ट।”दूसरा हंसा और उसने अपने
मन में सोचा कि यह जरूर कोई पागल होगा। वह बोला: ”तुम कैसे हो सकते हो। मेरी ओर देखो। परमात्मा का बेटा यहां है।”तीसरे ने सोचा कि दोनों मूर्ख है... कि दोनों पागल
हो गए है। उसने कहा, ”तुम क्या बात करते हो। मेरी और देखो। परमात्मा का बेटा यहां है।”
फिर उस मनोविश्लेषक ने उनसे अलग-अलग पूछा। ”तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या है।”
उन तीनों ने कहा, ”बाकी दोनों पागल हो गये है।”
12-और ऐसा केवल पागलों के साथ ही नहीं है। यदि तुम ईसाइयों से पूछो कि वे कृष्ण के विषय में क्या सोचते है.. क्या वे उसे परमात्मा समझते है। तो वे कहेंगे कि उस पार से केवल एक ही आगमन हुआ है। वे है जीसस क्राइस्ट। इतिहास में केवल एक ही बार परमात्मा संसार में उतरा है और जीसस क्राइस्ट के रूप में। कृष्ण भले है, महान है, लेकिन परमात्मा नहीं है।
यदि तुम हिंदुओं से पूछो, वे जीसस पर हंसेंगे। वही पागलपन चलता है। और वास्तविकता यह है कि सब परमात्मा के बेटे है–सब। इससे अन्यथा संभव ही नहीं है।
13-तुम एक ही स्त्रोत से आते हो। चाहे तुम जीसस हो, कि कृष्ण हो, कि अ, ब, स कुछ भी हो, या कुछ भी नहीं हो, तुम एक ही स्त्रोत से आते हो। और हर ”मैं” हर चेतना, हर क्षण दिव्य से संबंधित है। जीसस केवल एक विधि दे रहे थे। वह गलत समझे गए।यह विधि वही है...
”सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।”
14-न केवल यह अनुभव करो कि तुम इस चेतना से बने हो। बल्कि अपने आस-पास की हर चीज को इसी चेतना से निर्मित जानो। क्योंकि यह अनुभव करना तो बड़ा सरल है कि तुम इस चेतना से बने हो। इससे तुम्हें बड़े अंहकार का भाव हो सकता है। अहंकार को इससे बड़ी तृप्ति मिल सकती है। लेकिन अनुभव करो कि दूसरा भी इसी चेतना से बना है। फिर यह एक विनम्रता बन जाती है।
15-जब सब कुछ दिव्य है तो तुम्हारा मन अहंकारी नहीं हो सकता। जब सब कुछ दिव्य है तो तुम विनम्र हो जाते हो। फिर तुम्हारे कुछ होने का कुछ श्रेष्ठ होने का प्रश्न नहीं रह जाता, फिर पूरा अस्तित्व दिव्य हो जाता है। और जहां भी तुम देखते हो, दिव्य को ही देखते हो। देखने वाला दृष्टा और देखा गया दृश्य दोनों दिव्य है। क्योंकि रूप विभक्त नहीं है। सब रूपों के पीछे अरूप छिपा हुआ है।‘'सत्य में रूप अविभक्त है। सर्वव्यापी आत्मा तथा तुम्हारा अपना रूप अविभक्त है। दोनों को इसी चेतना से निर्मित जानो।’'
.......SHIVOHAM.......