विज्ञान भैरव तंत्र की ध्यान संबंधित ,50,51 विधियां क्या है?
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काम संबंधि तीसरा सूत्र–
तंत्र सूत्र--विधि -50 ओशो ‘’काम-आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।‘’
‘’काम-आलिंगन के बिना ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।‘’ एक बार तुम इसे जान गए तो प्रेम पात्र की, साथी की जरूरत नहीं है। तब तुम कृत्य का स्मरण उसमे प्रवेश कर सकते हो। लेकिन पहले भाव का होना जरूरी है। अगर भाव से परिचित हो तो साथ के बिना भी तुम कृत्य में प्रवेश कर सकते हो। यह थोड़ा कठिन है, लेकिन यह होता है। और जब तक यह नहीं होता, तुम पराधीन रहते हो। एक पराधीनता निर्मित हो जाती है। और यह प्रवेश अनेक कारणों से घटित होता है। अगर तुमने उसका अनुभव किया हो, अगर तुमने उस क्षण को जाना हो जब तुम नहीं थे, सिर्फ तरंगायित ऊर्जा एक होकर साथी के साथ वर्तुल बना रही थी। तो उस क्षण साथी भी नहीं रहता है, केवल तुम होते हो। वैसे ही उस क्षण तुम्हारे साथी के लिए तुम नहीं होते, वही होता है। वह एकता तुममें होती है। साथी नहीं रह जाता है। और यह भाव स्त्रियों के लिए सरल है। क्योंकि स्त्रियों आँख बंद करके ही संभोग में उतरती है। इस विधि का प्रयोग करते समय आँख बंद रखना अच्छा है। तो ही वर्तुल का आंतरिक भाव एकता का आंतरिक भाव निर्मित हो सकता है। और फिर उसका स्मरण करो। आँख बंद कर लो और ऐसे लेट जाओ मानो तुम अपने साथी के साथ लेटे हो, स्मरण करो और भाव करो लो और ऐसे तुम्हारा शरीर कांपने लगेगा। तरंगायित होने लगेगा। उसे होने दो। यह बिलकुल भूल जाओ कि दूसरा नहीं है। ऐसे गति करो जैसे कि दूसरा उपस्थित है। शुरू में कल्पना से ही काम लेना होना। एक बार जाना गए कि यह कल्पना नहीं, यथार्थ है; तब दूसरा मौजूद है। ऐसे गति करो जैसे कि तुम वस्तुत: संभोग में उतर रहे हो। वह सब कुछ करो जो तुम अपने प्रेम-पात्र के साथ करते; चीखो, डोलो, कांपो। शीध्र वर्तुल निर्मित हो जाएगा। और यह वर्तुल अद्भुत है। शीध्र ही तुम्हें अनुभव हो जायेगा। लेकिन यह वर्तुल पुरूष स्त्री से नहीं बना है। अगर तुम पुरूष हो तो सारा ब्रह्मांड स्त्री बन गया है। और अगर तुम स्त्री होता सारा ब्रह्मांड पुरूष बन गया है। अब तुम खुद अस्तित्व के साथ प्रगाढ़ मिलन में हो और उसके लिए दूसरा द्वार की तरह अब नहीं है। दूसरा मात्र द्वार है। किसी स्त्री के साथ संभोग करते हुए तुम दरअसल अस्तित्व के साथ संभोग में होते हो। सत्री मात्र द्वार है। पुरूष मात्र द्वार है। दूसरा संपूर्ण के लिए द्वार भर है। लेकिन तुम इतनी जल्दी में हो कि तुम्हें इसका एहसास नहीं होता। अगर तुम प्रगाढ़ मिलन में, सघन आलिंगन में घंटो रह सको तो दूसरा विस्मृत हो जाएगा। दूसरा समष्टि का विस्तार भर रह जाएगा। अगर एक बार इस विधि को तुमने जान लिया तो अकेले भी तुम इसका प्रयोग कर सकते हो। और जब अकेले रहकर प्रयोग करोगे। तो वह तुम्हें एक नयी स्वतंत्रता प्रदान करेगा। वह तुम्हें दूसरे से स्वतंत्र कर देगा। वह वस्तुत: समूचा अस्तित्व दूसरा हो जाता है। तुम्हारी प्रेमिका या तुम्हारा प्रेमी हो जाता है। और फिर तो इस विधि का प्रयोग निरंतर किया जा सकता है। और तुम सतत अस्तित्व के साथ आलिंगन में संवाद में रह सकते हो। और तब तुम इस विधि का प्रयोग दूसरे आयामों में भी कर सकते हो सुबह टहलते हुए इसका प्रयोग कर सकते हो। तब तुम हवा के साथ, उगते सूरज के साथ, चाँद-तारों के साथ, पेड़-पौधों के साथ। तुम लयबद्ध होने का अनुभव कर सकते हो। रात में तारों को देखते हुए इस विधि का प्रयोग कर सकते हो। चाँद को देखते हुए कर सकते हो। तुम पूरी सृष्टि के साथ काम-भोग में उतर सकते हो। अगर तुम्हें इसके घटित होने का राज पता चल जाए। निर्मित हो जाये, लेकिन मनुष्य के साथ प्रयोग आरंभ करना अच्छा है। कारण यह है कि मनुष्य तुम्हारे सबसे निकट है। वे तुम्हारे लिए जगत के निकटतम अंश है। लेकिन फिर उन्हें छोड़ा जा सकता है। उनके बिना भी चलेगा। तुम छलांग ले सकते हो और द्वार को बिलकुल भूल सकते हो। ‘’ऐसे मिलन का स्मरण करके भी रूपांतरण होगा।‘’ और तुम रूपांतरित हो जाओगे। तुम नए हो जाओगे। तंत्र काम का उपयोग वाहन के रूप में करता है। वह ऊर्जा है, उसे वाहन या माध्यम बनाया जा सकता है। काम तुम्हें रूपांतरित कर सकता है। वह तुम्हें अतिक्रमण की अवस्था को , समाधि को उपलब्ध करा सकता है। लेकिन हम गलत ढंग से काम का उपयोग करते है। और गलत ढंग स्वाभाविक ढंग नहीं है। इस मामले में पशु भी हमसे बेहतर है। वे स्वभाविक ढंग से काम का उपयोग करते है। हमारे ढंग बड़े विकृत है। काम पाप है। यह बात निरंतर प्रचार से मनुष्य के मन में इतनी गहरी बैठ गई है कि अवरोध बन गई है। उसके चलते तुम कभी अपने को काम म उतरने की पूरी छूटी नहीं देते, तुम कभी उससे उन्मुक्त भाव से नहीं प्रवेश करते। तुम्हारा एक अंश सदा अलग खड़े होकर उसकी निंदा करता है। और यह बात नयी पीढ़ी के लिए भी सच है। वे भला कहते हो कि हमारे लिए काम कोई समस्या नहीं है। और हम उसके दमित से ग्रस्त नहीं है। कि वह हमारे लिए टैबू नहीं रहा। लेकिन बात इतनी आसान नहीं है। तुम अपने अचेतन को इतनी आसानी से नहीं पोंछ सकते, वह सदियों में निर्मित हुआ है। मनुष्य का पूरा अतीत तुम्हारे साथ है। हो सकता है। कि तुम चेतना में काम की निंदा न करते होओ। तुम उसे पाप न भी कहते हो। लेकिन तुम्हारा अचेतन सतत उसकी निंदा में लगा है। तुम कभी समग्रता से काम कृत्य में नहीं होते। सदा ही कुछ अंश बाहर रह जाता है। और वही बाहर रह गया अंश विभाजन पैदा करता है, टूट पैदा करता है। तंत्र कहता है, काम में समग्रता से प्रवेश करो। अपनी सभ्यता को, अपने धर्म को, संस्कृति और आदर्श को भूल जाओ। काम कृत्य में उतरो, पूर्णता से, समग्रता से उतरो। अपने किसी भी अंश को बाहर मत छोड़ो। सर्वथा निर्विचार हो जाओ। तभी यह बोध होता है। कि तुम किसी को साथ एक हो गए हो। और तब एक होने के इस भाव को साथी से पृथक किया जा सकता है। और उसे पूरे ब्रह्मांड के साथ जोड़ा जा सकता है। तब तुम वृक्ष के साथ, चाँद तारों के साथ, किसी भी चीज के साथ काम-क्रीड़ा में उतर सकते हो। एक बार तुम्हें वर्तुल बनाना आ जाए तो किसी भी चीज के साथ यह वर्तुल निर्मित किया जा सकता है। तुम अपने भीतर भी एक वर्तुल का निर्माण कर सकते हो। क्योंकि मनुष्य दोनों है, पुरूष और स्त्री दोनों है। पुरूष के भीतर स्त्री है और स्त्री के भीतर पुरूष है। तुम दोनों हो, क्योंकि दोनों ने मिलकर तुम्हें निर्मित किया है। तुम्हारा निर्माण स्त्री और पुरूष दोनों के द्वारा हुआ है। इसलिए तुम्हारा आधा अंश सदा दूसरा है। तुम बाहरी सब कुछ को पूरी तरह भूल जाओ। और वह वर्तुल तुम्हारे भीतर निर्मित हो जाएगा। इस वर्तुल के बनते ही तुम्हारा पुरूष तुम्हारी स्त्री के आलिंगन में होता है। और तुम्हारे भीतर की स्त्री भीतर के पुरूष के आलिंगन में होती है। और तब तुम अपने साथ ही आंतरिक काम-आलिंगन में होते हो। और इस वर्तुल के बनने पर ही सच्चा ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। अन्यथा सब ब्रह्मचर्य विकृति है और उससे समस्याएं ही समस्याएं जनम लेती है। और जब यह वर्तुल तुम्हारे भीतर निर्मित होता है तो तुम मुक्त हो जाते हो। तंत्र यही कहता है: कामवासना गहनत्म बंधन है, लेकिन उसका उपयोग परम मुक्ति के लिए किया जा सकता है। उसे एक वाहन बनाया जा सकता है। जहर को औषधि बनाया जा सकता है। लेकिन उसके लिए विवेक जरूरी है। तो किसी चीज की निंदा मत करो। वरन उसका उपयोग करो। किसी चीज के विरोध में मत होओ। उपाय निकालों कि उसका उपयोग किया जाए। उसको रूपांतरित किया जाए। तंत्र जीवन का गहन स्वीकार है, समग्र स्वीकार है। तंत्र अपने ढंग की सर्वथा अनूठी साधना है। अकेली साधना है। सभी देश और काल में तंत्र का यह अनूठापन अक्षुण्ण रहा है। और तंत्र कहता है, किसी चीज को भी मत फेंको, किसी चीज के भी विरोध में मत जाओ। किसी चीज के साथ संघर्ष मत करो, क्योंकि द्वंद्व में, संघर्ष में मनुष्य अपने प्रति ही विध्वंसात्मक हो जाता है। सभी धर्म कामवासना के विरोध में है। वे उससे डरते है। क्योंकि कामवासना महान ऊर्जा है। उससे उतरते ही तुम नहीं बचते हो। उसका प्रवाह तुम्हें कहीं से कहीं बहा ले जाता है। यही भय का कारण है। इससे ही लोग अपने और इस प्रवाह के बीच एक दीवार, एक अवरोध खड़ा कर लेते है। ताकि दोनों बंट जाएं, ताकि यह प्रबल शक्ति तुम्हें अभिभूत न करे। ताकि तुम उसके मालिक बन रहो। लेकिन तंत्र का कहना है—और केवल तंत्र का कहना है—कि यह मालिकीयत झूठी है। रूग्ण है। क्योंकि तुम सच में इस प्रवाह से पृथक नहीं हो सकते हो। वह प्रवाह तुम हो। सभी विभाजन झूठे होंगे। सभी विभाजन थोपे हुए होंगे। बुनियादी बात यह है कि विभाजन संभव ही नहीं है। क्योंकि तुम्हीं वह प्रवाह हो, तुम उसके अंग हो, उसकी एक लहर हो। संभव है कि तुम बर्फ की तरह जम गए हो। और इस तरह तुमने अपने को प्रवाह से अलग कर लिया है। लेकिन वह जमना, वह अलग होना मृतवत हो गई है। कोई भी आदमी वास्तव में जीवन नहीं है। तुम नदी में बहते हुए मुर्दों जैसे हो। पिघलो। तंत्र कहता है: पिघलने चेष्टा करो। हिमखंड की तरह मत जीओं। पिघलो और नदी के साथ एक हो जाओ। नदी के साथ एक होकर, नदी में विलीन होकर बोधपूर्ण होओ और तब रूपांतरण घटित होता है। तब रूपांतरण है। संघर्ष से नहीं, बोध से रूपांतरण घटित होता है। ये तीन विधियां बहुत वैज्ञानिक विधियां है। लेकिन तब काम या सेक्स वही नहीं रहता है जो तुम उसे समझते हो, तब वह कुछ और ही चीज है। तब सेक्स कोई क्षणिक राहत नहीं है, तब वह ऊर्जा को बाहर फेंकना नहीं है। तब इसका अंत नहीं आता, तब वह ध्यानपूर्ण वर्तुल बन जाता है।
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काम संबंधि चौथा सूत्र–
‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’
उस हर्ष में प्रवेश करो और उसके साथ एक हो जाओ। किसी भी हर्ष से काम चलेगा। यह एक उदाहरण है।
‘’बहुत समय बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है।‘’
तुम्हें अचानक कोई मित्र मिल जाता है जिसे देखे हुए बहुत दिन, बहुत वर्ष हो गए है। और तुम अचानक हर्ष से, आह्लाद से भर जाते हो। लेकिन अगर तुम्हारा ध्यान मित्र पर है, हर्ष पर नहीं तो तुम चूक रहे हो। और यह हर्ष क्षणिक होगा। तुम्हारा सारा ध्यान मित्र पर केंद्रित होगा, तुम उससे बातचीत करने में मशगूल रहोगे। तुम पुरानी स्मृतियों को ताजा करने में लगे रहोगे। तब तुम इस हर्ष को चूक जाओगे। और हर्ष भी विदा हो जाएगा। इसलिए जब किसी मित्र से मिलना हो और अचानक तुम्हारे ह्रदय में हर्ष उठे तो उस हर्ष पर अपने को एकाग्र करो। उस हर्ष को महसूस करो। उसके साथ एक हो जाओ। और तब हर्ष से भरे हुए और बोधपूर्ण रहते हुए अपने मित्र को मिलो। मित्र को बस परिधि पर रहने दो और तुम अपने सुख के भाव के में केंद्रित हो जाओ।
अन्य अनेक स्थितियों में भी यह किया जा सकता है। सूरज उग रहा है और तुम अचानक अपने भीतर भी कुछ उगता हुआ अनुभव करते हो। तब सूरज को भूल जाओ, उसे परिधि पर ही रहने दो और तुम उठती हुई उर्जा के अपने भाव में केंद्रित हो जाओ। जब तुम उस पर ध्यान दोगे, वह भाव फैलने लगेगा। और वह भाव तुम्हारे सारे शरीर पर, तुम्हारे पूरे अस्तित्व पर फैल जाएगा। और बस दर्शन ही मत बने रहो। उसमे विलीन हो जाओ।
ऐसे क्षण बहुत थोड़े होते है, जब तुम हर्ष या आह्लाद अनुभव करते हो, सुख और आनंद से भरते हो। और तुम उन्हें भी चूक जाते हो। क्योंकि तुम विषय केंद्रित होते हो। जब भी प्रसन्नता आती है। सुख आता है, तुम समझते हो कि यह बाहर से आ रहा है।
किसी मित्र से मिलने हो, स्वभावत: लगता है कि सुख मित्र से आ रहा है। मित्र के मिलने से आ रहा है। लेकिन यह हकीकत नहीं है। सुख सदा तुम्हारे भीतर है। मित्र तो सिर्फ परिस्थिति निर्मित करता है। मित्र ने सुख को बाहर आने का अवसर दिया। और उसने तुम्हें उस सुख को देखने में हाथ बंटाया।
यह नियम सुख के लिए ही नहीं। सब चीजों के लिए है; क्रोध, शोक, संताप, सुख, सब पर लागू होता है। ऐसा ही है। दूसरे केवल परिस्थिति बनाते है जिसमे जो तुम्हारे भीतर छिपा है वह प्रकट हो जाता है। वे कारण नहीं है। वे तुम्हारे भीतर कुछ पैदा नहीं करते है। जो भी घटित हो रहा है वह तुम्हें घटित हो रहा है। वह सदा है। मित्र का मिलन सिर्फ अवसर बना, जिसमे अव्यक्त व्यक्त हो रहा है। अप्रकट हो गया।
जब भी यह सुख घटित हो, उसके आंतरिक भाव में स्थित रहो और तब जीवन में सभी चीजों के प्रति तुम्हारी दृष्टि भिन्न हो जाएगी। नकारात्मक भावों के साथ भी यह प्रयोग किया जा सकता है। जब क्रोध आए तो उस व्यक्ति की फिक्र मत करो जिसने क्रोध करवाया, उसे परिधि पर छोड़ दो और तुम क्रोध ही हो जाओ। क्रोध को उसकी समग्रता में अनुभव करो, उसे अपने भीतर पूरी तरह घटित होने दो।
उसे तर्क-संगत बनाने की चेष्टा मत करो। यह मत कहो कि इस व्यक्ति ने क्रोध करवाया। उस व्यक्ति की निंदा मत करो। वह तो निर्मित मात्र है। उसका उपकार मानों कि उसने तुम्हारे भीतर दमित भावों को प्रकट होने का मौका दिया। उसने तुम पर कहीं चोट की। और वहां से घाव छिपा पडा था। अब तुम्हें उस घाव का पता चल गया है। अब तुम वह घाव ही बन जाओ।
विधायक या नकारात्मक, किसी भी भाव के साथ प्रयोग करो और तुम में भारी परिवर्तन घटित होगा। अगर भाव नकारात्मक है तो उसके प्रति सजग होकर तुम उससे मुक्त हो जाओगे। और अगर भाव विधायक है तो तुम भाव ही बन जाओगे। अगर यह सुख है तो तुम सुख बन जाओगे। लेकिन यह क्रोध विसर्जित हो जाएगा। और नकारात्मक और विधायक भावों का भेद भी यही है। अगर तुम किसी भाव के प्रति सजग होते हो और उससे वह भाव विसर्जित हो जाता है तो समझना कि वह नकारात्मक भाव है। और यदि किसी भाव के प्रति सजग होने से तुम वह भाव ही बन जाते हो और वह भाव फैलकर तुम्हारे तन-प्राण पर छा जाता है तो समझना कि वह विधायक भाव है। दोनों मामलों में बोध अलग-अलग ढंग से काम करता है। अगर कोई जहरीला भाव है तो बोध के द्वारा तुम उससे मुक्त हो सकते हो। और अगर भाव शुभ है, आनंदपूर्ण है, सुंदर है तो तुम उससे एक हो जाते हो। बोध उसे प्रगाढ़ कर देता है।
मेरे लिए यही कसौटी है। अगर कोई वृति बोध से सघन होती है तो वह शुभ है और अगर बोध से विसर्जित हो जाती है तो उसे अशुभ मानना चाहिए। जो चीज होश के साथ न जी सके वह पाप है और जो होश के साथ वृद्धि को प्राप्त हो वह पुण्य है। पुण्य और पाप सामाजिक धारणाएं नहीं है। वे आंतरिक उपलब्धियां है।
अपने बोध को जगाओं, उसका उपयोग करो। यह ऐसा ही है जैसे कि अंधकार है और तुम दीया जलाये हो। दीए के जलते ही अंधकार विदा हो जाएगा। प्रकाश के आने से अँधेरा नहीं हो जाता है। क्योंकि वस्तुत: अँधेरा नहीं था। अंधकार प्रकाश का आभाव है। वह प्रकाश की अनुपस्थिति था। लेकिन प्रकाश के आने से वहां मौजूद अनेक चीजें प्रकाशित भी हो जाएंगी। प्रकट हो जायेगी। प्रकाश के आने से ये अलमारियां, किताबें, दीवारें विलीन नहीं हो जाएंगी। अंधकार में वे छिपी थी, तुम उन्हें नहीं देख सकते थे। प्रकाश के आने से अंधकार विदा हो गया लेकिन उसके साथ ही जो यथार्थ था वह प्रकट हो गया। बोध के द्वारा जो भी अंधकार की तरह नकारात्मक है—धृणा, क्रोध, दुःख, हिंसा—वह विसर्जित हो जाएगा और उसके साथ ही प्रेम, हर्ष, आनंद जैसी विधायक चीजें पहली बार तुम पर प्रकट हो जाएंगी।
इसलिए ‘’बहुत समय के बाद किसी मित्र से मिलने पर जो हर्ष होता है, उस हर्ष में लीन होओ।‘’